Tuesday, June 25, 2019

जब एंड्रोमेडा आकाशगंगा हमारी आकाशगंगा से टकराएगी





दिलीप कुमार कनौजिया

               आज से तकरीबन चार अरब वर्षों के बाद हमारी आकाशगंगा मंदाकिनी (मिल्की वे) और एंड्रोमेडा आकाशगंगा आपस मे टकरा जाएगी लेकिन अफसोस तब तक हमारा सूर्य एक विशाल लाल तारा बन चुका होगा l
न ही पृथ्वी और न ही सौर मंडल इस खगोलीय टकराव का साक्षी होगा। दो पड़ोसी आकाशगंगाओं का मिलन बड़ा दुर्लभ होता है और इसके प्रभाव बड़े पैमाने पर देखे जाते है। लेकिन यहां तो चार अरब वर्षो के बाद दो बड़े आकाशगंगा एक दूसरे से विलय करेंगी। एंड्रोमेडा आकाशगंगा जो कि  एक अण्डाकार आकाशगंगा है और हमारी मिल्की वे एक सर्पीली आकाशगंगा। शोधकर्ताओं द्वारा भविष्यवाणी की गई है की इस अद्भुत टकराव के बाद दोनों आकाशगंगाओं की वर्तमान संरचना बिल्कुल बदल जायेगी खासकर मिल्की वे की सर्पीली संरचना।
फिलहाल एंड्रोमेडा गैलेक्सी हमारी आकाशगंगा से 250 लाख प्रकाश वर्ष दूर है लेकिन गुरुत्वाकर्षण के पारस्परिक पुल के कारण एंड्रोमेडा लगभग 70 मील/110 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से हमारी आकाशगंगा के पास आ रहा है। इस दर से यदि अनुमान लगाया जाय तो यह टक्कर शुरू होने से लगभग चार अरब वर्ष शेष हैं।
 हालांकि जब मिल्की वे और एंड्रोमेडा एक-दूसरे से विलय करना आरंभ करेंगे तो उनके लिए पूरी तरह से एक दूसरे में विलीन हो जाने और एक नये विशाल अण्डाकार आकाशगंगा के रूप में निर्मित होने में एक या दो अरब साल और लगेंगे। इसके अलावा नासा के अनुसार, स्थानीय समूह की तीसरी सबसे बड़ी आकाशगंगा, त्रिकोणीय आकाशगंगा भी विलय की गई जोड़ी के चारों ओर अपनी कक्षा स्थापित करेंगी लेकिन अंतत: बाद की तारीख में एस33 भी उन दोनों एकीकृत होते आकाशगंगाओं के साथ विलय कर सकती है ऐसा वैज्ञानिकों को उम्मीद है।
एंड्रोमेडा आकाशगंगा में लगभग एक ट्रिलियन तारे हैं और हमारी आकाशगंगा में लगभग 300 अरब सितारें है। 
इन आकाशगंगाओं का विलय दोनों आकाशगंगा के केंद्र में मौजूद अतिसंवेदनशील बड़े ब्लैक होल को पास ले आयेगा। ये ब्लैक होल एक-दूसरे की ओर बढ़ेंगे और अंत में जब वे बहुत करीब होंगे तो वे एक-दूसरे के गुरुत्वाकर्षण पुल से बच नहीं सकते हैं। बड़े ब्लैकहोल का विलय एक बहुत ही हिंसक घटना है जो अंतरिक्ष-समय के फैब्रिक के माध्यम से भारी गुरुत्वाकर्षण लहरों को अंतरिक्ष मे प्रसारित करते है। इन गुरुत्वाकर्षण लहरों की तीव्रता बहुत शक्तिशाली होती है और यह भी संभव है की बहुत सारे सितारों को आकाशगंगा से ही बाहर फेंक सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन परिस्थितियों में हमारे सौर मंडल वर्तमान की तुलना में कही और नई कक्षा में स्थापित हो जाएगा।
ऐसा भी नही है की वैज्ञानिकों ने अबतक किसी आकाशगंगा की टकराव को नही देखा है। कोर्वस नक्षत्र में एंटीना आकाशगंगाओं हृत्रष्ट-4038 और  4039 की टक्कर आजतक चल रही है। इन दोनों युवा आकाशगंगाओं का टकराव करीब 200 मिलियन वर्ष पहले शुरू हुआ था जो अबतक जारी है। ताजा आकड़ों के अनुसार इन आकाशगंगाओं और इनके घने क्षेत्रों के भीतर कई गोलाकार समूहों का गठन हो चुका है। इस टकराव में भी एक आकाशगंगा का आकार सर्पीली है इसलिये इस विलय को देखकर वैज्ञानिक, एंड्रोमेडा और मिल्की वे के साथ होने वाली टक्कर के बारे में उपयोगी अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं।
ब्रह्मांड में इस प्रकार के आकाशगंगाओं का टकराव एक सामान्य प्रक्रिया हैं क्योंकि स्थानीय स्तर पर, गुरुत्वाकर्षण पुल ब्रह्मांड के समग्र विस्तार से अधिक शक्तिशाली होता है दूसरे शब्दों में कहा जाय तो गुरुत्वाकर्षण बल संपूर्ण ब्रह्मांड के विस्तार पर हावी हो जाता है। हमसब जानते है की ब्रह्माण्ड विस्तार कर रहा है लेकिन किसी एक गुब्बारा पर कई डॉट्स आसपास हो और उसे फुलाया जाता है तब वे डॉट्स काफी बड़े हो जाते है।
इन ब्रह्माण्डीय परिस्थितियों में गुरुत्वाकर्षण बड़े वस्तुओं के लिए जीत जाता है और वस्तुओं को एक-दूसरे के निकट ले आता है। वास्तव में हमारी आकाशगंगा और एंड्रोमेडा के बीच की दूरी बहुत करीब मानी जाता है यह इतनी करीब है की इनके गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव ब्रह्मांड के विस्तार पर हावी है। वास्तव में गुरुत्वाकर्षण को एक कमजोर बल माना जाता है लेकिन यह ब्रह्माण्ड का असली नायक है।
टोनी सोहं का कहना है-जब एंड्रोमेडा हमारी आकाशगंगा तक पहुचेगा उससे पहले ही सूर्य एक लाल विशालकाय तारा बन चुका होगा और इस तारे की सतह ने पहले से ही पृथ्वी को अपने घेरे में ले लिया होगा। हम इस खगोलीय टकराव को रोक तो नही पायेंगे और न ही देख सकते है लेकिन कम्प्यूटर सिमुलेशन हमे इस टकराव की झलक दिखा रहे है और भविष्य में अधिक सटीकता से दिखाते ही रहेंगे।


ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं ने अपने ताजा शोध अध्ययन में कहा है की एंड्रोमेडा और हमारी आकाशगंगा मिल्की वे दोनों का आकार लगभग समान ही है और दोनों का द्रव्यमान लगभग 800 बिलियन सौर द्रव्यमान के बराबर है।
                                                                              
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Friday, June 21, 2019




आकाशगंगा



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स्पिट्ज़र अंतरिक्ष दूरबीन से ली गयी आकाशगंगा के केन्द्रीय भाग की इन्फ़्रारेड प्रकाश की तस्वीर।

अलग रंगों में आकाशगंगा की विभिन्न भुजाएँ।

आकाशगंगा के केंद्र की तस्वीर।

ऍन॰जी॰सी॰ १३६५ (एक सर्पिल गैलेक्सी) - अगर आकाशगंगा की दो मुख्य भुजाएँ हैं जो उसका आकार इस जैसा होगा।

आकाशगंगा के नीचे खड़ी एक महिला - कैलिफोर्निया में लिया गया एक चित्र
आकाशगंगा, मिल्की वे, क्षीरमार्ग या मन्दाकिनी हमारी गैलेक्सी को कहते हैं, जिसमें पृथ्वी और हमारा सौर मण्डल स्थित है। आकाशगंगा आकृति में एक सर्पिल (स्पाइरल) गैलेक्सी है, जिसका एक बड़ा केंद्र है और उस से निकलती हुई कई वक्र भुजाएँ। हमारा सौर मण्डल इसकी शिकारी-हन्स भुजा (ओरायन-सिग्नस भुजा) पर स्थित है। आकाशगंगा में 100 अरब से 400 अरब के बीच तारे हैं और अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 50 अरब ग्रह होंगे, जिनमें से 50 करोड़ अपने तारों से जीवन-योग्य तापमान रखने की दूरी पर हैं।
 सन् 2011 में होने वाले एक सर्वेक्षण में यह संभावना पायी गई कि इस अनुमान से अधिक ग्रह हों - इस अध्ययन के अनुसार आकाशगंगा में तारों की संख्या से दुगने ग्रह हो सकते हैं।
 हमारा सौर मण्डल आकाशगंगा के बाहरी इलाक़े में स्थित है और आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा कर रहा है। इसे एक पूरी परिक्रमा करने में लगभग 22.5 से 25  करोड़ वर्ष लग जाते हैं।


नाम

संस्कृत और कई अन्य हिन्द-आर्य भाषाओँ में हमारी गैलॅक्सी को "आकाशगंगा" कहते हैं
 पुराणों में आकाशगंगा और पृथ्वी पर स्थित गंगा नदी को एक दुसरे का जोड़ा माना जाता था और दोनों को पवित्र माना जाता था। प्राचीन हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में आकाशगंगा को "क्षीर" (यानि दूध) बुलाया गया है।
 भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी कई सभ्यताओं को आकाशगंगा दूधिया लगी। "गैलॅक्सी" शब्द का मूल यूनानी भाषा का "गाला" (γάλα) शब्द है, जिसका अर्थ भी दूध होता है। फ़ारसी संस्कृत की ही तरह एक हिन्द-ईरानी भाषा है, इसलिए उसका "दूध" के लिए शब्द संस्कृत के "क्षीर" से मिलता-जुलता सजातीय शब्द "शीर" है और आकाशगंगा को "राह-ए-शीरी" (راه شیری‎) बुलाया जाता है। अंग्रेजी में आकाशगंगा को "मिल्की वे" (Milky Way) बुलाया जाता है, जिसका अर्थ भी "दूध का मार्ग" ही है।


आकार

आकाशगंगा एक सर्पिल (अंग्रेज़ी में स्पाइरल) गैलेक्सी है। इसके चपटे चक्र का व्यास (डायामीटर) लगभग १,००,००० (एक लाख) प्रकाश-वर्ष है लेकिन इसकी मोटाई केवल १,००० (एक हज़ार) प्रकाश-वर्ष है।
 आकाशगंगा कितनी बड़ी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है के अगर हमारे पूरे सौर मण्डल के चक्र के क्षेत्रफल को एक रुपये के सिक्के जितना समझ लिया जाए तो उसकी तुलना में आकाशगंगा का क्षेत्रफल भारत का डेढ़ गुना होगा।

भुजाएँ

क्योंकि मानव आकाशगंगा के चक्र के भीतर स्थित हैं, इसलिए हमें इसकी सही आकृति का अचूक अनुमान नहीं लगा पाए हैं।
 हम पूरे आकाशगंगा के चक्र और उसकी भुजाओं को देख नहीं सकते। हमें हज़ारों अन्य गैलेक्सियों का पूरा दृश्य आकाश में मिलता है जिस से हमें गैलेक्सियों की भिन्न श्रेणियों का पता है। आकाशगंगा का अध्ययन करने के बाद हम केवल अनुमान लगा सकते हैं के यह सर्पिल श्रेणी की गैलेक्सी है। लेकिन यह पता लगाना बहुत कठिन है के आकाशगंगा की कितनी मुख्य और कितनी क्षुद्र भुजाएँ हैं। ऊपर से यह भी देखा गया है के अन्य सर्पिल गैलेक्सियों में भुजाएँ कभी-कभी अजीब दिशाओं में मुड़ी हुई होती हैं या फिर विभाजित होकर उपभुजाएँ बनती हैं।

बनावट

१९९० के दशक तक वैज्ञानिक समझा करते थे के आकाशगंगा का घना केन्द्रीय भाग एक गोले के अकार का है, लेकिन फिर उन्हें शक़ होने लगा के उसका आकार एक मोटे डंडे की तरह है। 2005 में स्पिट्ज़र अंतरिक्ष दूरबीन से ली गयी तस्वीरों से स्पष्ट हो गया के उनकी आशंका सही थी: आकाशगंगा का केंद्र वास्तव में गोले से अधिक खिंचा हुआ एक डंडेनुमा आकार निकला।


आयु

2007 में आकाशगंगा में एक "एच॰ई॰ 1523-0901" नाम के तारे की आयु १३.२ अरब साल अनुमानित की गयी, इसलिए आकाशगंगा कम-से-कम उतना पुराना तो है ही।

उपग्रहीय गैलेक्सियाँ

दो गैलेक्सियाँ, जिन्हें बड़ा और छोटा मॅजलॅनिक बादल कहा जाता है, आकाशगंगा की परिक्रमा कर रहीं हैं।[17] आकाशगंगा की और भी उपग्रहीय गैलेक्सियाँ हैं।




                                                            DILEEP KUMAR KANOJIYA









चंद्रयान-२

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चंद्रयान-२
मिशन प्रकारचन्द्रमा spacecraft ,ऑर्बिटर, लैंडर तथा रोवर
संचालक (ऑपरेटर)भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन

मिशन अवधिऑर्बिटर: 1 वर्ष
लैंडर : 14-15 दिन[1]
रोवर: 14-15 दिन[1]
अंतरिक्ष यान के गुण
निर्माताभारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन
लॉन्च वजनसंयुक्त: 3,250 कि॰ग्राम (7,170 पौंड)[2]
पेलोड वजनऑर्बिटर: 1,400 कि॰ग्राम (3,100 पौंड)
रोवर: 20 कि॰ग्राम (44 पौंड)[3]
मिशन का आरंभ
प्रक्षेपण तिथि2019
रॉकेटभूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान[4]
प्रक्षेपण स्थलसतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र
ठेकेदारभारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन
चन्द्रमा कक्षीयान
कक्षा मापदंड
निकट दूरी बिंदु100 कि॰मी॰ (62 मील)[2]
दूर दूरी बिंदु100 कि॰मी॰ (62 मील)[2]
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भारतीय चन्द्रयान अभियान
← चन्द्रयान-1
चंद्रयान-2 भारत का चंद्रयान -1 के बाद दूसरा चंद्र अन्वेषण अभियान है, जिसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) ने विकसित किया है।[
अभियान को जीएसएलवी मार्क 3 प्रक्षेपण यान द्वारा प्रक्षेपण करने की योजना है।
 इस अभियान में भारत में निर्मित एक लूनर ऑर्बिटर (चन्द्र यान) तथा एक रोवर एवं एक लैंडर शामिल होंगे। इस सब का विकास इसरो द्वारा किया जायेगा। भारत चंद्रयान-2 को 15 July 2019 में प्रक्षेपण करने की योजना बना रहा है।
इसरो के अनुसार यह अभियान विभिन्न नयी प्रौद्योगिकियों के इस्तेमाल तथा परीक्षण के साथ-साथ नए प्रयोग भी करेगा।
 पहिएदार रोवर चन्द्रमा की सतह पर चलेगा तथा वहीं पर विश्लेषण के लिए मिट्टी या चट्टान के नमूनों को एकत्र करेगा। आंकड़ों को चंद्रयान-2 ऑर्बिटर के माध्यम से पृथ्वी पर भेजा जायेगा।
मायलास्वामी अन्नादुराई के नेतृत्व में चंद्रयान-1 अभियान को सफलतापूर्वक अंजाम देने वाली टीम चंद्रयान-2 पर भी काम कर रही है।


डिजाइन

अंतरिक्ष यान
इस अभियान को श्रीहरिकोटा द्वीप के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान द्वारा भेजे जाने की योजना है; उड़ान के समय इसका वजन लगभग 3,250 किलो होगा।
 दिसंबर 2015 को, इस अभियान के लिये 603 करोड़ रुपये की लागत आवंटित की गई।
ऑर्बिटर
ऑर्बिटर 100 किलोमीटर की ऊंचाई पर चन्द्रमा की परिक्रमा करेगा.
 इस अभियान में ऑर्बिटर को पांच पेलोड के साथ भेजे जाने का निर्णय लिया गया है। तीन पेलोड नए हैं, जबकि दो अन्य चंद्रयान-1 ऑर्बिटर पर भेजे जाने वाले पेलोड के उन्नत संस्करण हैं। उड़ान के समय इसका वजन लगभग 1400 किलो होगा। ऑर्बिटर उच्च रिज़ॉल्यूशन कैमरा (Orbiter High Resolution Camera) लैंडर के ऑर्बिटर से अलग होने पूर्व लैंडिंग साइट के उच्च रिज़ॉल्यूशन तस्वीर देगा।
 ऑर्बिटर और उसके जीएसएलवी प्रक्षेपण यान के बीच इंटरफेस को अंतिम रूप दे दिया है।
लैंडर
चन्द्रमा की सतह से टकराने वाले चंद्रयान-1 के मून इम्पैक्ट प्रोब के विपरीत, लैंडर धीरे-धीरे नीचे उतरेगा। 
 लैंडर किसी भी वैज्ञानिक गतिविधियों प्रदर्शन नहीं करेंगे। लैंडर तथा रोवर का वजन लगभग 1250 किलो होगा। प्रारंभ में, लैंडर रूस द्वारा भारत के साथ सहयोग से विकसित किए जाने की उम्मीद थी। जब रूस ने 2015 से पहले लैंडर के विकास में अपनी असमर्थता जताई। तो भारतीय अधिकारियों ने स्वतंत्र रूप से लैंडर को विकसित करने का निर्णय लिया। रूस लैंडर को रद्द करने का मतलब था। कि मिशन प्रोफ़ाइल परिवर्तित हो जाएगी। स्वदेशी लैंडर की प्रारंभिक कॉन्फ़िगरेशन का अध्ययन 2013 में अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र(SAC),अहमदाबाद द्वारा पूरा कि गयी।

लैंडर पेलोड
  • सेइसमोमीटर - लैंडिंग साइट के पास भूकंप के अध्ययन के लिए 
  • थर्मल प्रोब - चंद्रमा की सतह के तापीय गुणों का आकलन करने के लिए
  • लॉंगमोर प्रोब - घनत्व और चंद्रमा की सतह प्लाज्मा मापने के लिए
  • रेडियो प्रच्छादन प्रयोग - कुल इलेक्ट्रॉन सामग्री को मापने के लिए
रोवर पेलोड
  • लेबोरेट्री फॉर इलेक्ट्रो ऑप्टिक सिस्टम्स (LEOS), बंगलौर से लेजर इंड्यूस्ड ब्रेकडाउन स्पेक्ट्रोस्कोप (LIBS).
  • PRL, अहमदाबाद से अल्फा पार्टिकल इंड्यूस्ड एक्स-रे स्पेक्ट्रोस्कोप (APIXS).


                                                                         DILEEP KUMAR

Friday, June 14, 2019






सूर्य


सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। 
ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३० प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। 
 इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है।




इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है।





                                                                         DILEEP KUMAR
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धरती की ओर बढ़ रहा है उल्का पिंड 
 आशंका है कि अंतरिक्ष से तेजी से धरती की ओर आ रहा यह उल्का पिंड भारी तबाही मचा सकता है. अमेरिकी अतंरिक्ष एजेंसी नासा के प्रमुख ने चिंता जताई है और कहा है कि ये धरती से न टकराए, इसके लिए हमें प्रार्थना करनी चाहिए .
 तबाही की आशंका है, लेकिन उसे रोकने का हल किसी को पता नहीं. नासा प्रमुख चार्ल्स बोल्डन से जब यह पूछा गया कि इस खतरे से कैसे निपटा जा सकता है, तो उन्होंने जवाब दिया कि प्रार्थना कीजिए. 

नासा के मुताबिक उल्का पिंड न्यूयॉर्क सिटी की तरफ बढ़ रहा है. उल्का पिंड के रास्ते पर लगातार नजर रखी जा रही है. बोल्डन कहते हैं, "अब तक हमारे पास जो जानकारी है उसके हिसाब से हमें नहीं पता है कि यह उल्का पिंड अमेरिका की आबादी को खतरे में डालेगा या नहीं. लेकिन अगर यह तीन हफ्ते के भीतर आ रहा है तो प्रार्थना कीजिए." धरती के आस पास भटकते एक किलोमीटर या उससे बड़े व्यास वाले 95 फीसदी पिंडों पर नासा निगाह रखती है. इस आकार का एक बड़ा उल्का पिंड अगर धरती से टकराए तो क्या होगा? 
अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय के विज्ञान सलाहकार जॉन होल्ड्रेन ने सासंदों से कहा, "एक किलोमीटर या फिर उससे बड़ा, इस आकार का एक उल्का पिंड धरती पर सभ्यता को खत्म कर सकता है." लेकिन 50 मीटर व्यास वाले उल्का पिंडों की संख्या बहुत कम है. अनुमान है कि 10,000 उल्का पिंडों में से इतने बड़े सिर्फ 10 फीसदी होते हैं. औसत के हिसाब से देखा जाए तो बड़े आकार का उल्का पिंड हर 1,000 साल में पृथ्वी से टकराता है. 

 घर्षण से जलता उल्का पिंड खतरे की आशंका को देखते हुए नासा ने निगरानी बढ़ा दी है. अन्य देशों की अंतरिक्ष एजेंसियों के साथ मिलकर उल्का पिंड का रास्ता बदलने के बारे में भी विचार किया जा रहा है. रास्ता बदलने से उल्का पिंड को धरती से टकराने से रोका जा सकेगा. होल्ड्रेन के मुताबिक, "धरती के आस पास मौजूद उल्का पिंडो की वजह से भारी नुकसान और ढांचे की तबाही की संभावना बहुत कम होती है, लेकिन ऐसे मामलों के असर की संभवाना इतनी विशाल होती हैं कि ऐसे जोखिमों को गंभीरता से लेना पड़ता है." खगोलशास्त्रियों का मानना है कि 6.6 करोड़ साल पहले 10 किलोमीटर व्यास का एक उल्का पिंड धरती से टकराया था. पिंड मेक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप से टकराया. माना जाता है कि टक्कर की वजह से पूरी धरती थर्रा उठी और एक झटके में विशालकाय डायनासोर खत्म हो गए. उस वक्त धरती पर मौजूद ज्यादातर पौधे और जीव-जंतु भी उस टक्कर की भेंट चढ़ गए. 
 पिछले महीने एक उल्का पिंड 54,000 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से धरती के वायुमंडल में घुसा. वायुमंडल के संघर्ष की वजह से उल्का पिंड जलने लगा. रूस के बड़े इलाके में इस चमक को देखा गया. ताप और घर्षण की वजह से 17 मीटर व्यास वाले पिंड के कुछ टुकड़े रूस के यूराल पर्वत पर गिरे. इसकी वजह से रूस में 1,000 से ज्यादा लोग घायल हुए और करीब 3.30 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ.
 खगोलशास्त्रियों के मुताबिक 1908 के बाद पहली बार 15 फरवरी 2013 को कोई उल्का पिंड धरती की कक्षा में घुसा शोधकर्ताओं का दावा : 2028 में एक शहर बराबर उल्का पिंड पृथ्वी से टकराएगा, शुरु होगी विनाशलीला / शोधकर्ताओं का दावा : 2028 में एक शहर बराबर उल्का पिंड पृथ्वी से टकराएगा, शुरु होगी विनाशलीला .


अमेरिका. आज से करीब दस साल बाद एक शहर बराबर उल्का पिंड पृथ्वी से टकराएगा। इसके टकराते ही कई देश तबाह हो जाएंगे। एक झटके में करोड़ों लोगों की मौत हो जाएगी। ये दावा है कुछ एक्सपर्ट्स का। इनके मुताबिक, धीरे-धीरे उल्का पिंड पृथ्वी के करीब आ रहे हैं और अब वो दिन दूर नहीं जब ये पृथ्वी पर गिरने लगेंगे। यहीं से प्रलय की शुरुआत होगी। - 2016 में पृथ्वी के करीब से एक्सएफ11 नाम का एस्टेरोइड (उल्का पिंड) 2.5 करोड़ किलोमीटर की दूरी से निकला था। जिसके बाद पता चला कि इसका अगला चक्कर 10 साल बाद फिर पूरा होगा और ये पृथ्वी से महज 9 लाख किलोमीटर की दूरी से गुजरेगा। इसमें चिंता की बात यह है कि इसका ऑरिबट तय नहीं होगा और ये किसी भी दिशा में भटक सकता है। इससे पृथ्वी को खतरा है। 2.5 किलोमीटर होगी लंबाई - ये उल्का पिंड करीब ढाई किलोमीटर लंबा होगा, जो एक छोटे शहर के बराबर है। इतना बड़ा उल्का पिंड आसानी से लंदन, न्यूयॉर्क जैसे शहर या किसी छोटे देश को सेकंड्स में तबाह कर सकता है। इस वजह से हो सकती है टक्कर - 1997 में जब पहली बार इस उल्का पिंड को खोजा गया था, तब साइंटिस्ट्स ने दावा किया था कि ये पृथ्वी के बेहद करीब से गुजर सकता है। 
ये दूरी 4 लाख किलोमीटर से भी कम हो सकती है। अगर ये इतनी कम दूरी से गुजरता है, तो पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण इसे अपनी ओर खींच लेगा और ये सीधे उसपर आ गिरेगा। ऐसे में भविष्य में ऐसी घटना होने के दावे को बल मिलता है। कुछ छिपा रही है नासा? - साइंटिस्ट्स के इन दावों पर स्पेस एजेंसी नासा ने लंबे समय तक कुछ नहीं कहा। हालांकि, लोगों का डर कम करने के लिए नासा ने कहा है कि ये उल्का पिंड बिना किसी गड़बड़ी के पृथ्वी के करीब से गुजर सकता है।
 इस आधिकारिक बयान में कहा गया है, 'अक्टूबर 2028 में एक्सएफ 11 नाम का एस्टेरोइड पृथ्वी के करीब से गुजरेगा लेकिन इससे हमें नुकसान नहीं होगा'। हालांकि, इन सब बातों से सवाल ये उठता है कि क्या नासा हमसे कुछ छिपा रही है?





                                                                     DILEEP KUMAR

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Thursday, June 13, 2019

















Indianvebsite.blogspot.com                                                                                 JAI HIND

Monday, June 3, 2019

                        Rastragan

jan man gan adhinayak jai hai
bharat bhagy bidhata 
panjab sindhu gujrat maratha
dravin utkal bang,
bindha himachal yanuna ganga,
uchhal jaladhi tarag,
tav shubh name jage ,
tav sdhbh ashish mange,
gaye tav jai gata ,
jan gan mangaldayak jai hai,
bharat bhagya bidhata ,
jai hai, jai hai, jai hai,
jai jai jai jai jai hai.............



bharat mata ki jai..........


                                                    Dileep kumar

ab sabse jyada upgrah saturn ke paas hai......    10.10.2019 अब शनि ग्रह के पास मिले 82 चंद्रमा अंत...